प्रखर समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने का ऐलान कर दिया गया है। राम मंदिर में विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा के अगले ही दिन कर्पूरी ठाकुर की सौवीं जयंती पर प्रधानमंत्री ने उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा कर दी। इस घोषणा के बाद लालू यादव और उनकी पार्टी में इसका श्रेय लेने की होड़ लग गई। जिन जिन नेताओं ने जीते जी कर्पूरी ठाकुर को हाशिए पर डाल दिया वो भी गला फाड़कर चिल्लाने लगे कि उनकी राजनीति के दबाव की वजह से नरेंद्र मोदी को ऐसा फैसला लेना पड़ा। कौन थे कर्पूरी ठाकुर? क्यूं लालू लेना चाहते हैं श्रेय? मोदी ने अभी क्यूं लिया ये फैसला? तो सबसे पहले इतना जानिए कि
लालू यादव को राजनीति में लाने वाले कर्पूरी ठाकुर थे। एक छात्र नेता लालू यादव को 1977 में सांसद उम्मीदवार बनाने वाले कर्पूरी ठाकुर ही थे। लालू यादव उनके हाव-भाव, और तौर तरीकों की नकल तो जरूर करते रहे लेकिन कर्पूरी ठाकुर को पीठ पीछे नुकसान भी पहुंचाते रहे। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कर्पूरी ठाकुर की तनख्वाह कार नहीं अफोर्ड कर सकती थी लिहाजा वो अक्सर रिक्शे का इस्तेमाल करते या पैदल चलते। एक बार कर्पूरी ठाकुर बीमार थे और सदन में विपक्ष के नेता थे तो उन्होंने लालू यादव को संदेशा भिजवाया कि विधानसभा जाने के लिए अपनी जीप भिजवा दें। लालू ने संदेशवाहक को ये कहकर वापस लौटा दिया कि उनकी जीप में तेल नहीं है। लालू यादव सांसद बनने के तुरंत बाद विल्श की एक सेकेंड हैंड जीप खरीद चुके थे।
अब जब लालू यादव और उनकी पार्टी को लगा कि कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर प्रधानमंत्री ने पिछड़ों के वोटबैंक में सेंध लगा दी है तब से उनकी नींद खराब हो गई है और लगातार ये साबित करने में जुटे हैं कि ये सब उनकी वजह से हुआ है। ये फैसला चाहे जिसकी वजह से हुआ हो ये फैसला वाकई प्रशंसनीय है। कर्पूरी ठाकुर ऐसे नेता थे जिन्हें हम सही मायनों में समाजवादी कह सकते हैं। वे वैसे समाजवादी नहीं थे जो कार सेवकों पर गोलियां चलवा दें और न ही वैसे समाजवादी जो अपने शासन में तरह तरह के घोटालों से अपने परिवार की संपत्ति दिन दूनी रात चौगूनी बढ़ाते जाएँ बल्कि वो तो ऐसे समाजवादी नेता थे जो जिन्होंने विधायकों को दी जा रही सरकारी जमीन मुख्यमंत्री रहते हुए लेने से इंकार कर दिया और दूसरे विधायकों के ये कहने पर कि आप भी ले लीजिए अगर आप मुख्मंत्री नहीं रहे तो बच्चों के काम आएगा, स्पष्ट तौर पर कहा कि अगर बच्चे इस लायक न हुए कि वो खुद से शहर में रह सके तो वो गांव चले जाएँगे, वहीं कमाएँगे-खाएँगे। ऐसे सच्चे समाजवादी नेता को दशकों तक सत्ता में रहने के बाद भी लालू यादव ने कभी सही तरीके से स्थापित नहीं होने दिया। कर्पूरी ठाकुर उस दौर के नेता थे जब मीडिया इस कदर प्रभावी नहीं था इसलिए जब लालू यादव का दौर आया तो उन्होंने कभी भी कर्पूरी ठाकुर की चर्चा तक करना उचित नहीं समझा क्यूंकि वो जानते थे वो समाज के लिए जो भी बेहतर करने का नाटक करते हैं दरअसल वो सारी सोच कर्पूरी ठाकुर की है। सही मायनों में कर्पूरी ठाकुर आजादी के बाद पहले ऐसे नेता थे जिन्होंने पिछड़े तबके को मुख्यधारा में लाने के प्रयास किए। कर्पूरी ठाकुर दो दो बार मुख्यमंत्री रह चुके थे लेकिन फटे कुर्ते, घिसी चप्पल और बिखरे बाल कर्पूरी की पहचान बन चुके थे। एक बार तो चंद्रशेखर जी ने भरी बैठक में अपना कुर्ता फैलाकर चंदा मांगा और कहा कि कर्पूरी जी अब आप एक नया कुर्ता सिलवा लीजिए और कर्पूरी ऐसे कि उन्होंने पैसे लेकर कहा लाइए दीजिए पैसा अभी बिहार में मुख्यमंत्री राहत कोष को इसकी सबसे ज्यादा जरुरत ज्यादा है। ऐसे थे कर्पूरी। लालू ने इन्हीं कर्पूरी की नकल की लेकिन बिखरे बाल से ज्यादा कुछ भी कॉपी नहीं कर पाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस घोषणा ने निश्चित तौर पर बिहार में चल रही पिछड़ी जाति की राजनीति में एक सेंधमारी कर दी है। पिछले साल जब जनता दल यूनाइडेट और राष्ट्रीय जनता दल ने मिलकर जातीय सर्वे कराया और उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक की उसके बाद से ही बीजेपी पर एक अनकहा दबाव था। हालांकि उस सर्वे को आधार बनाकर कांग्रेस ने खूब ढोल पीटा और राहुल गांधी 2023 के विधानसभा चुनावों में जितनी आबादी उतना हक का नारा लगाते रहे लेकिन नतीजा उनके पक्ष में नहीं आया। बीजेपी को जरूर लगा होगा कि विपक्ष का ये कार्ड भी फेल हो गया, पर मन में बिहार को लेकर आशंका बनी रही होगी कि बिहार का पिछड़ा वोटर न जाने किस करवट बैठेगा। जाहिर है इस फैसले के पीछे वोट की राजनीति है लेकिन ये फैसला ऐसा है जो कम से कम 30 साल पहले हो जाना चाहिए था, कम से कम उस वक्त तो जरूर होना चाहिए था जब देश की राजनीति में लालू की तूती बोलती थी लेकिन लालू आखिर क्यूं होने देते? कर्पूरी के बड़े होने से लालू का कद जो कम होता था। भारत रत्न कर्पूरी को सच्ची श्रद्धांजलि है।