जनवरी 2023 की बात है, जब गुजरात के सूरत जिले के एक बड़े हीरा व्यापारी की मात्र 8 साल की बेटी ने अपना बचपन, अपने खिलौने छोड़कर एक सफेद, सूती कपड़ा धारण किया और दीक्षा लेकर 8 साल की देवांशी संघवी बन गई साध्वी दिगंतप्रज्ञाश्री। देवांशी की ही तरह जैन धर्म में दीक्षा लेने वाले बच्चों की एक लंबी सूची है। बच्चों का यूं सन्यास की ओर जाना जैन धर्म में बालदीक्षा कहलाता है। जैन धर्म के अनुसार, 8 साल की उम्र के बाद कोई भी बच्चा अपनी इच्छा से दीक्षा ले सकता है।
लेकिन इसपर कई सवाल उठाए गए कि आखिर 8 साल के किसी भी बच्चे में दीक्षा लेने जितनी समझ कैसे हो सकती है। वो इस उम्र में उनके लिए क्या सही है और क्या गलत ये समझने में सक्षम नहीं होते है। लेकिन जैन धर्मगुरू कहते हैं कि ये रस्म किसी पर भी थोपी नहीं जाती, बल्कि बच्चे हों या बड़े सभी अपनी स्वेच्छा से दीक्षा ग्रहण करते हैं। एक रिपोर्ट की मानें तो हर साल जैन धर्म में करीब 400 लोग दीक्षा ले रहे हैं।
अब बात आती है कि आखिर क्या है जैन धर्म में दीक्षा लेने का अर्थ, दरअसल, जैन धर्म में दीक्षा लेने का मतलब है कि संसार की सारी भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग कर अपना पूरा जीवन जैन धर्म को समर्पित कर देना। दीक्षा लेने के लिए बतौर एक समारोह या कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। जिसमें कई संस्कार पूरे करने के बाद दीक्षा मिलती है। दीक्षा लेने के बाद व्यक्ति को 5 व्रतों का पालन करना पड़ता है। जिनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह शामिल है।
अहिंसा के मार्ग पर चलने वाले जैन साधू किसी भी जीवित प्राणी को हानि नहीं पहुंचा सकते, यही कारण हैं कि दीक्षा लेने के बाद जैन धर्म के साधु एवं साध्वी कभी नहाते नहीं हैं। इन्हें हमेशा सत्य का साथ देना होगा और सत्य ही बोलना होगा। वहीं अस्तेय से अर्थ है कि लालच से मुक्त रहना होगा। इसके अलावा ब्रह्मचर्य का मतलब अपनी वासना पर विजय पाना और अपरिग्रह के तहत जैन धर्म से जुड़े साधु या साध्वी किसी भी भौतिक सुख-सुविधा का लाभ भी नहीं ले सकते। उन्हें इनसे पूरी तरह से दूर रहना होता है।
जैसा कि जैन धर्म के दो पंथ होते हैं, श्वेतांबर और दिगंबर। दोनों ही जैन धर्म के नियमों का सख्ती से पालन करते हैं। लेकिन कुछ मान्यताओं में दोनों के विचार और नियम कुछ अलग हैं। जैसे श्वेतांबर अपने शरीर को कपड़े से ढ़कते हैं जबकि दिगंबर ऐसा नहीं करते हैं। वो नग्न रहते हैं। दिगंबर का अर्थ है आकाशधारी, ये लोग आकाश या शून्य को अपना वस्त्र मानते हैं। ये केवल दीक्षा में मिला हुआ खाना खाते हैं। वो भी बिना किसी बर्तन के केवल अपने हाथों से। ये संसार के सभी बंधनों से मुक्त होकर सादा जीवन जीते हैं।
ये पूरा जीवन घोर साधना और तप करने मे गुज़ार देते हैं। लेकिन इनके विचार काफी अलग और सख्त माने जाते हैं। इनका मानना है कि महिलाओं को मोक्ष नहीं मिल सकता है। इनके अनुसार महिलाओं का मोक्ष पाने के लिए पुरूष के शरीर में जन्म लेना जरूरी है। जबकि श्वेतांबर पंथ में महिलाओं को भी मोक्ष मिलने की मान्यता है। जिसके चलते श्वेतांबर पक्ष में महिला साध्वियों की संख्या काफी ज्यादा रही है। जिसके चलते इन दोनों संप्रदायों के विचारों में भेद रहता है।