ओडिशा के नए मुख्यमंत्री बने मोहन चरण माझी ने आज यानी कि 13 जून की सुबह जगन्नाथ मंदिर में पूजा अर्चना की जिसके बाद मंदिर के चारों द्वारों को खोल दिया गया। जिसके बाद से एक बार फिर जगन्नाथ मंदिर चर्चा का विषय बन गया है। जैसा कि आपको मालूम होगा कि जल्द ही 7 जुलाई को जगन्नाथ यात्रा की शुरूआत होने जा रही है, जिसकी समाप्ति 16 जुलाई को होगी।
ऐसे में एक धार्मिक मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचने वाले भक्तों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। जिसके चलते भारी संख्या में लोग इस रथयात्रा में हिस्सा लेने पहुंचते हैं। लेकिन क्या आपको मालूम है कि इस यात्रा के पूरी होने बाद इन रथों और उनकी लकड़ियों का क्या होता है? अगर नहीं तो चलिए आज हम आपको बताते हैं।
जैसे कि आपको मालूम होगा कि जगन्नाथ जी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। वहीं जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ होता है ब्रह्मांड के भगवान.. ऐसे में रथ यात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और छोटी बहन सुभद्रा के साथ तीन अलग-अलग रथों पर सवार होकर शहर भ्रमण पर निकलते हैं। जिसके चलते इन तीनों के लिए हर साल नए रथों का निर्माण किया जाता है।
खास बात ये है कि भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और उनकी छोटी बहन सुभद्रा के रथ नीम और हांसी के पेड़ों की लकड़ियों से बनाए जाते हैं। इतना ही नहीं, जिन पेडों की लकड़ी से रथों को बनाया जाता है। उनका चयन भी एक खास समिति करती है। इस खास समिति का गठन जगन्नाथ मंदिर द्वारा किया जाता है। जिनका मुख्य काम नीम के स्वच्छ-स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान करना होता है।
जरूरी बात ये है कि रथ को बनाने में कील-कांटे या किसी भी तरह की धातु का इस्तेमाल नहीं होता है और तो और हर साल कुछ गिने चुने परिवारों के सदस्य ही इन रथों का निर्माण करते हैं। ये लोग इस काम में किसी मॉडर्न मशीन का इस्तेमाल नहीं करते। ना ही इनके पास किसी प्रकार की कोई औपचारिक ट्रेनिंग होती है। ये केवल अपने पूर्वजों से मिले ज्ञान और अनुभव के आधार पर ही हर साल सटीक, ऊंचे और मजबूत रथों का निर्माण करते हैं।
आपको बता दें कि भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा मुख्य मंदिर से शुरू होती है और करीब 3 किलोमीटर दूर स्थित उनकी मौसी के घर गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है। जहां भगवान जगन्नाथ 7 दिनों तक आराम करते हैं और फिर वापस अपने घर लौट आते हैं। इसे बहुड़ा यात्रा कहा जाता है। यात्रा में तीनों रथ लाइन से चलते हैं। ये तीनों ही रथ काफी बड़े होते हैं। जिनकी औसत ऊंचाई लगभग 13 मीटर होती है।
अब बात आती है मुख्य सवाल की, कि आखिर यात्रा खत्म होने के बाद रथों और उनकी लकड़ियों का क्या होता है? तो आपको बता दें कि सबसे पहले यात्रा पूरी होने के बाद, रथ के हिस्से को अलग कर इसकी नीलामी कर दी जाती है। shreejagannatha वेबसाइट पर इनके हिस्सों का ब्यौरा भी दिया हुआ है। इस नीलामी में रथ के पहिया सबसे कीमती हिस्सा माना जाता है जिसके चलते इसकी शुरूआती कीमत ही 50 हजार रूपये के करीब होती है।
इतना ही नहीं, रथ के हिस्सों को खरीदने के लिए आवेदन भी पहले से करना होता है। इसके अलावा जो कोई भी रथ के हिस्सों का खरीदता है, वो इनका इस्तेमाल गलत ढ़ंग से नहीं कर सकता है। मंदिर की नोटिफिकेशन की मानें तो खरीददार के ऊपर पहियों और बाकी हिस्सों को संभालकर रखने की जिम्मेदारी होती है। इसके अलावा रथ की बची हुई लकड़ियों को मंदिर की रसोई में भेज दिया जाता है। जहां इन लकड़ियों का उपयोग प्रसाद पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले फ्यूल के तौर पर किया जाता है।
आपको बता दें कि ये प्रसाद हर दिन करीब 1 लाख से भी ज्यादा भक्तों को दिया जाता है। वहीं जिस रसोई में यह प्रसाद बनता है, वो भी अपने आप में काफी खास मानी जाती है। दरअसल, पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर की रसोई कोई आम रसोई नहीं है, इसे मेगा रसोई भी कहा जाता है। जहां भगवान के भोग के लिए हर दिन 56 तरह के भोग तैयार किए जाते हैं। और तो और ये सारा खाना आज भी मिट्टी के बर्तनों में तैयार होता है।