चीनी यात्री और इतिहासकार ह्वेनसांग ने लिखा है कि कन्नौज के राजा हर पांचवें साल माघ मेले में प्रयाग आते थे और यहां सूर्य और शिव की ढाई महीने तक पूजा करते थे। हर्षवर्धन काल (606-647 ई.) में प्रयागराज में भव्य यज्ञ और अनुष्ठान के साक्ष्य अभिलेखों में पाए गए हैँ। उसके पहले गुप्तकाल में समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ कराया और यज्ञ छपा सोने का सिक्का भी जारी किया। अनुष्ठान का प्रमाण प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख में भी मिलता है। इन अनुष्ठानों में शामिल ऋषि-मुनियों को जमकर खजाना, दान, यहां तक कि अपने आभूषण तक राजा हर्षवर्धन बांट देते थे। हर्षवर्धन का इसके पीछे उद्देश्य था कि इन खजानों और आभूषणओं की बदौलत पूजा-पाठ के आयोजन लगातार होते रहें।
ऐतिहासिक साक्ष्यों पर गौर करें तो हर्षवर्धन से पहले शुंगकाल में अश्वमेध यज्ञ का जिक्र मिलता है। भारशिव नरेशों द्वारा ये यज्ञ 10 अश्वों के साथ कराया गया था। जिसके बाद इस जगह को दशाश्वमेध कहा गया। ईसा पूर्व में जाएं तो लगभग 2600 साल पहले महाजनपद काल में राजसूय और अश्वमेध यज्ञ हुए। 3 हजार साल पहले वैदिक काल के साहित्य में हुवी यज्ञ, सोम यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख है। इन तथ्यों का जिक्र इसलिये ताकि भारत की गौरवशाली परंपरा की बानगी मिलती रहे। अब अयोध्या में हो रही भव्य पूजा उसी इतिहास को दोहराने जैसा है।
हर्षवर्धन ने यहां कर्मकांड करने वाले तीर्थ पुरोहितों को कई अधिकार भी दिए। इसके बाद ह्वेनसांग ने भारत को ब्राह्मणों का देश कह दिया था। प्रयाग में जो हर पांचवें साल अनुष्ठान और सभा होती थी, उसको महामोक्षपरिषद नाम दिया गया था।