तय समय से सात महीने पहले हुए ब्रिटेन के आम चुनाव में सत्ताधारी कंजर्वेटिव पार्टी ऐतिहासिक हार के बाद सत्ता से बाहर हो चुकी है और लेबर पार्टी बंपर जीत के साथ सत्ता में आ चुकी है। पिछले 14 साल से सत्ता में रही कंजर्वेटिव पार्टी के साथ आखिर ऐसा क्या हुआ कि उसने अचानक अपनी साख गंवा दी? याद कीजिए साल 2022 के अक्टूबर की 25 तारीख, जब भारतवंशी ऋषि सुनक बतौर प्रधानमंत्री 10 डाउनिंग स्ट्रीट पहुंचे थे। पूरी दुनिया की नजर उन पर जा टिकी थी क्योंकि सुनक ने ऐसे वक्त में सत्ता संभाली थी जब ब्रिटेन कई समस्याओं से जूझ रहा था। ब्रेग्जिट और कोविड लॉकडाउन का असर अर्थव्यवस्था पर तो हुआ ही था, रूस-युक्रेन युद्ध ने देश में महंगाई को आसमान पर पहुंचा दिया था। ब्रिटेन पर तकरीबन 43 अरब डॉलर का कर्ज था। कोविड के दौरान बतौर वित्त मंत्री सुनक के प्रयासों से लोगों को जो सहूलियत मिली थी, उससे उनमें उम्मीद बाकी थी।
सुनक और उनकी पार्टी की दो सौ साल की सबसे बुरी हार का आकलन करें तो कई बातें साफ होती हैं। इसमें सबसे दिलचस्प आंकड़ा वोट प्रतिशत का है। लेबर पार्टी को कुल 650 में से 412 सीटें मिली हैं। उसे 2019 में 32.1 फीसदी वोट मिले थे और 202 सीटें। इस बार उसे महज 33.8 फीसदी वोट मिले हैं। 32.1 फीसदी वोट पाकर जिस पार्टी ने 2019 में 90 साल में सबसे बुरी हार झेली थी, उसने महज 1.7 फीसदी वोट बढ़ाकर विपक्षी पार्टी को 200 साल के सबसे बुरे नतीजे पर ला खड़ा किया। इस जीत में लेबर पार्टी की ताकत तो दिखती है लेकिन इसमें दूसरी पार्टियों का भी अहम योगदान है।
इन पार्टियों पर आने से पहले एक और आंकड़े पर नजर डालनी चाहिए। ब्रिटेन में इस बार महज 60 फीसदी लोगों ने मतदान किया। यह पिछले 20 साल का सबसे कम प्रतिशत है। कई सीटों पर हार-जीत का अंतर हजार वोटों से भी कम है। सात सीटें ऐसी हैं जहां केवल 15-100 वोटों के अंतर से फैसला हुआ है। इसके पीछे की वजह आखिर क्या है? ब्रिटेन की राजनीति में नवंबर 2018 में एक नई ‘रिफॉर्म यूके’ पार्टी की एंट्री हुई। इस पार्टी के मुखिया और सर्वेसर्वा कट्टरपंथी नेता नाइजल फराज हैं। नाइजल फराज की ‘रिफॉर्म पार्टी’ कंजर्वेटिव पार्टी से टूटे उन समर्थकों से बनी है जो धुर दक्षिणपंथी विचारधारा के हैं। उन्होंने ब्रेग्जिट के दौरान खूब सुर्खियां बटोरी थीं।
ब्रेग्जिट भले ही सुनक की कंजर्वेटिव पार्टी करवा रही थी, पर उसकी कमान नाइजल फराज के पास थी। नाइजल यूरोपीय संसद में सांसद थे और उनका पूरा अभियान यूरोपीय संघ से बाहर आने के समर्थन में था। पहले वे ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर लाने के अहम किरदार रहे और बाद में अपनी पार्टी बनाकर ब्रेग्जिट समर्थकों के बीच मजबूत छवि के सहारे कंजर्वेटिव के लिए मुश्किल खड़ी करने लगे। पिछले कुछ महीनों में नाइजल की लोकप्रियता ब्रिटेन में तेजी से बढ़ने लगी थी और सुनक ने चुनाव समय से सात महीने पहले कराने का जो फैसला लिया उसके पीछे की वजह नाइजल की बढ़ती लोकप्रियता भी थी। इसी रिफॉर्म पार्टी के उम्मीदवारों ने सैकड़ों सीटों पर दूसरे और तीसरे स्थान पर रहकर कंजर्वेटिव उम्मीदवारों को हराने में मुख्य भूमिका अदा की है। पहली बार चुनाव लड़ने वाली नाइजल की पार्टी को सीटें तो सिर्फ पांच मिली है लेकिन वोट 14.3 फीसदी। सुनक की हार की यह सबसे बड़ी वजह है।
कंजर्वेटिव पार्टी को नुकसान होने का एक बड़ा कारण बोरिस जॉनसन और लिज ट्रस जैसे नेताओं की अनुशासनहीनता और अकुशलता भी रही, जिसका लाभ लेबर पार्टी को मिला। लेबर के मुखिया कीर स्टार्मर को संसद में लगातार चुनौती देने के साथ निरुत्तर करते रहने वाले ऋषि सुनक अपनी पार्टी के इन नेताओं की अदूरदर्शिता की वजह से भी पिछड़ गए। चुनाव के दौरान स्टार्मर ने न तो किसी राजनीतिक करिश्मे की बात कही और न ही कोई आकर्षक घोषणा की, फिर भी लोगों ने बदलाव के तौर पर उनको चुना। इसकी वजह साफ थी। बार-बार प्रधानमंत्रियों के बदले जाने से भी जनता के बीच कंजर्वेटिव पार्टी को लेकर विश्वास में कमी आई और लोगों के बीच सत्ता-विरोधी लहर बनी। निश्चित तौर पर पिछले पांच साल में चार प्रधानमंत्री होने से लोगों का भरोसा हिला।
ऋषि सुनक की कंजर्वेटिव पार्टी पिछले 14 साल से सत्ता में बनी हुई थी। पार्टी ने पिछले 14 साल में अब तक पांच प्रधानमंत्री बनाए हैं। 2010 में डेविड कैमरन कंजर्वेटिव पार्टी से प्रधानमंत्री के तौर पर जीते थे। इसके बाद साल 2015 में उन्हीं के नेतृत्व में पार्टी ने दूसरी जीत हासिल की थी, लेकिन उसके बाद से किसी ने भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया। कोरोना के समय में बतौर वित्त मंत्री ऋषि सुनक ने जिस तरह से ब्रिटेन की जनता का खयाल रखा और फैसले किए वह एक करिश्मा था लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि सुनक उस करिश्मे को बरकरार नहीं रख पाए।
ब्रिटेन में टैक्स की दरें आज 70 साल में सबसे ज्यादा हैं। महंगाई सबसे ज्यादा है। कोरोना के बाद से आम व्यक्ति के रसोई का खर्च 30 फीसदी तक बढ़ गया। सही मायने में देखें तो सरकार के पास लोगों पर खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं। दरअसल कोरोना के दिनों में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए 280 बिलियन पाउंड यानी 29 लाख करोड़ रुपए ब्रिटेन ने खर्च किए। पूरी योजना सुनक की बनाई हुई थी। सरकार ने ये पैसे कर्ज लेकर खर्च किया और इसके पीछे की सोच यह थी कि कर्ज बहुत कम 0.1% ब्याज दर पर लिया है, अर्थव्यवस्था के पटरी पर आते ही उसे चुका देंगे। इस बीच रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया, बदले में अमेरिका की अगुआई में यूरोप के देशों ने रूस से तेल और गैस खरीदना बंद कर दिया। नतीजा यह हुआ कि ब्रिटेन समेत पूरे यूरोप में गैस और तेल के दाम आसमान छूने लगे। महंगाई दर बढ़कर 5% से ज्यादा हो गई।
सरकार ने इस संकट से निपटने के लिए फिर उधार लेकर 400 बिलियन पाउंड खर्च कर दिए। बढ़ती महंगाई से निपटने के लिए ब्रिटेन के सेंट्रल बैंक ने ब्याज दरें बढ़ा दीं। इससे महंगाई तो कम हो गई पर ब्रिटेन की सरकार ने जो कर्ज लिया था उसका ब्याज बढ़ गया। ब्याज दरें बढ़ने की वजह से सरकार के पास लोगों की जरूरतों, देश की सुरक्षा, हेल्थ सिस्टम पर खर्च करने के लिए पैसा कम पड़ने लगा। इससे सुनक सरकार ने लोगों पर खर्च कम कर दिया, जिससे जनता में नाराजगी बढ़ी जो परिणाम में दिखा।