ये कहानी है एक ऐसे सीरियल किलर की, जिसने एक या दो नहीं बल्कि 900 लोगों की हत्या की और वो भी बिना किसी बंदूक या हत्यार के.. भारत का वो सीरियल किलर जिसका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है और तो और इसके शातिर कारनामों को लोगों तक पहुंचाने के लिए एक किताब भी लिखी गई है। ऐसा हत्यारा, जिसने भारत में कई सालों तक अपनी हुकूमत का सिक्का चलाने वाले अंग्रेजों को भी डराकर रखा, ये कहानी है ठग बहराम की।
साल 1765 में मध्यप्रदेश के जबलपुर में जन्में बहराम खां का बचपन काफी साधारण रहा। मगर कहानी ने नया मोड़ तब लिया जब एक दिन बहराम की मुलाकात अपने से 25 साल बड़े ठग सैयद अमीर अली से हुई। ठग, अमूमन ऐसे violent लोगों को कहा जाता है जो किसी को भी हानि पहुंचा सकते हैं या धोखा देकर लूटने में माहिर होते हैं। सयैद भी इन्हीं ठग्स में से एक था। जिसने बहराम खां को ठग बहराम बनाने में सबसे अहम किरदार अदा किया था।
1790 के दशक में आमतौर पर व्यापार करने वाले लोग एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए काफिलों में ट्रैवल किया करते थे। (काफिला यानि की 2-4 या इससे ज्यादा लोगों का एक झुंड) जब पहली बार इस काफिले से लोगों के गायब होने की खबर आई तो किसी ने ध्यान नहीं दिया। मगर धीरे-धीरे ये पूरे के पूरे काफिले गायब होने लगे। लोगों में डर का माहौल पैदा होने लगा। हालात इतने खराब हो गए कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने सिपाहियों को सावधान रहने के लिए एक एडवाइजरी तक जारी करनी पड़ी।
इन सारी घटनाओं के पीछे ठग बहराम का हाथ था। मगर इस काम में वो अकेला नहीं था उसके जैसे 200 और ठग मिलकर इस काम को अंजाम दे रहे थे। इन लोगों के कपड़े बिल्कुल आम लोगों जैसे होते ताकि किसी को इनपर शक ना हो। जैसे ही इन्हें अपने शिकार की पहचान हो जाती थी वैसे ही ये ठग काफिले से जुड़ने के लिए उसके आगे पीछे हो जाते। धीरे-धीरे उनसे बात करके उनका विश्वास जीत लेते और फिर जब राहगीरों को इनपर भरोसा हो जाता तब ये ठग अपने काम को अंजाम देते। वहीं ये ठग आपस में बात करने के लिए एक खास कोडेड भाषा रामसी का इस्तेमाल किया करते थे। रामसी में कुछ खास शब्दों का इस्तेमाल ये लोग अपने मिशन के लिए करते थे। जैसे कब्र को बेल, कुदाल को कस्सी और झोले को लुटकुनिया कहा जाता था।
राहगीरों के काफिले के आगे और पीछे ठगों के दो गिरोह चला करते थे। आगे वाले गिरोह का काम मारे जाने वाले लोगों की संख्या पता चलने पर उनके हिसाब से कब्र खोदना था। सभी लोगों के लिए एक ही कब्र खोदी जाती थी, जिसे लोगों के हिसाब से ज्यादा गहरा खोदा जाता था। जबकि पीछे वाला गिरोह खतरे का संकेत देने के लिए चला करता था (जैसे अगर कोई खतरा दिखाई देता तो “लुचमुन सिंह आ गया” ये कहकर ठगों को आगाह किया जाता, वहीं भागने के लिए ‘लोपी खान आ गया’ बोला जाता था) इतना ही नहीं, जब राहगीरों को ठगकर ठिकाने लगाने का समय आता तो हमला करने के लिए ये ठग सुरती खा लो, हुक्का पिलाओ जैसे कोड वर्ड्स का इस्तेमाल करते थे।
ये वो समय था जब सूरत और बॉम्बे में अफीम का कारोबार तेजी से बढ़ रहा था। अफीम का पैसा राजपुताना, मालवा तक पहुंच रहा था। लेकिन लंबी दूरी और डकैतों से बचने के लिए चांदी और सोने के सिक्कों को ले जाने के लिए खास लोग रखे जाते थे। जो आमतौर पर भिखारी के भेष में घूमा करते, ताकि किसी को उनकी भनक ना पड़े। मगर हद तो तब हो गई जब ये लोग भी बीच रास्ते से गायब होने लगे।
डकैती लूट तक के मामले तो बड़ी बात नहीं थी, मगर लोगों का गायब हो जाना सभी के लिए खौफनाक था। वक्त बीतता गया और ये सिलसिला सालों साल जारी रहा। साल 1828 में जब विलियम बेंटिक ने भारत के गवर्नर जनरल का पद संभाला, तो बेंटिक ने इस मामले की तह तक जाने के लिए विलियम हेनरी स्लीमैन को हायर किया और मामले की पड़ताल शुरू की गई।
1835 में ठग गिरोह का एक सदस्य स्लीमैन के हाथ लगा जिसका नाम आमिर अली था। आमिर अली को काफी टॉर्चर करने पर उसने ठगों के कारनामों का खुलासा किया। आमिर अली ने ही ठगो के सरदार बहराम खां का पता बताया। उसने बताया कि 1790 में बहराम खां ने ठगों की दुनिया में कदम रखा था और सिर्फ 2 दशकों में 2 हजार से ज्यादा ठगों का एक गिरोह तैयार किया। आमिर अली की मदद से पुलिस ने 1838 में 72 साल के ठग बहराम को भी पकड़ लिया। मगर तब तक बहराम 938 लोगों का कत्ल कर चुका था। हालांकि कुछ रिकॉर्ड में ये भी दर्ज़ है कि उसने सिर्फ 140 लोगों की हत्या की थी और बाकी हत्याओं में वो सिर्फ मौजूद था।
ठग बहराम ने पुलिस को बताया कि हमले के लिए ये ठग एक पीले रूमाल का इस्तेमाल करते थे। जिसमें एक सिक्के को गांठ बांधकर रखा जाता था। रूमाल को शिकार के गले में डालकर मरोड़ा जाता, जिससे दम घुटने पर उसकी मौत हो जाती। वहीं बहराम को पकड़ने वाले स्लीमैन के अनुसार, ये ठग गरीबी या किसी मजबूरी में ऐसा नहीं करते थे बल्कि ये लोग ठगी को अपना व्यवसाय मानते थे और देवी काली की पूजा करते थे। खास बात ये थी कि इन ठगों में हर जाति समुदाय और धर्म के लोग शामिल थे मगर सभी देवी काली को मानते थे। और ये सारे कत्ल देवी काली को बलि चढ़ाए गए थे।
राहगीरों को पकड़ने का काम भी एक खास समय पर किया जाता जिसे ये ठग देवी काली का इशारा मानते, जैसे बिल्लियों का झगड़ना, क़व्वे की आवाज़ आदि। कब्र खोदने से पहले एक खास पूजा की जाती जिसमें सभी ठग जै देवी माई कहकर काम शुरू करते थे। ठग यूं ही खून बहाकर देवी काली को नाराज़ नहीं करना चाहते थे।
धीरे-धीरे स्लीमैन ने ठगों को पकड़कर, यातना या लालच देकर पूरे ठग गैंग की जानकारी इकठ्ठा की। कुछ ठगों को मुखबिर बना लिया गया और अगले दो सालों में ठगों के पूरे नेटवर्क का पता लगाकर उनमें से अधिकतर को जेल में डाल दिया गया। इनमें से 412 ठगों को फांसी दी गयी और 87 को आजीवन कारावास। इसके बाद साल 1939 में बहराम खां को भी फांसी दे दी गई और साल 1870 आते आते पूरे भारत से ठगों का खात्मा हो चुका था।