ये कहानी है 1962 की, जब 12 साल की सुधा मूर्ति, सिर्फ 7वीं क्लास में पढ़ती थीं। उस समय वो अपने दादा-दादी के साथ उत्तरी कर्नाटक के हावेरी जिले में शिगांव के पास रहा करती थीं। सुधा बचपन से ही अपनी दादी के बहुत करीब थीं। उनकी दादी सुबह से दोपहर सुधा के इंतजार में काट देती कि कब सुधा स्कूल से घर लौटेंगी और उन्हें पत्रिका से एक कहानी पढ़कर सुनाएंगी। दरअसल, सुधा की दादी पढ़ी लिखीं नहीं थीं और इस बात का उन्हें अफसोस रहता, किताबों और पत्रिकाओं में छपे जो काले अक्षर उनकी समझ नहीं आते थें, उन्हीं अक्षरों को पढ़कर सुधा एक अच्छी कहानी हर दिन उन्हें सुनाया करती थीं।
सुधा अक्सर अपनी दादी को उन दिनों कन्नड़ भाषा में छपकर आने वाली कर्मवीर पत्रिका की कहानियां सुनाया करती थीं। लेकिन एक बार जब सुधा अपने किसी रिश्तेदार की शादी में एक हफ्ते के लिए घर से बाहर रही तो दादी बहुत उदास थीं। जैसे ही सुधा वापस लौटी तो दादी के आंखों में आंसू थे। दरअसल, हुआ यूं कि सुधा के ना रहते हुए भी हर दिन पत्रिका तो आती रही लेकिन बिना पढ़ीं-लिखी दादी खुदसे एक अक्षर भी नहीं पढ़ सकीं। उन्होंने इस पर खुदकों बहुत शर्मिंदा महसूस किया और तय किया कि वो कन्नड़ पढ़ना सीखेंगे।
बस इस तरह 12 साल की सुधा बन गईं 80 वर्षीय दादी की शिक्षिका। सुधा ने दादी को वर्णमाला सिखाने से शुरूआत की और हर दिन स्कूल जाने से पहले उन्हें होमवर्क देकर जाने लगीं। दादी भी खूब मन लगाकर अपना सारा काम करतीं और हर दिन नए शब्द नए अक्षरों को पढ़ना सीखने लगीं। कुछ समय बाद जब दादी शब्द से शब्द मिलाकर पढ़ना सीख गईं तो दशहरा पर सुधा ने उन्हें एक किताब तोहफे में दीं। जिसपर लिखा था काशी यात्री, त्रिवेणी।
काशी यात्री वहीं कहानी थीं जिसे पढ़कर हर दिन सुधा अपनी दादी को सुनाया करती थीं। ये कहानी थी एक ऐसी बूढ़ी औरत की जो काशी जाना चाहती थीं। सुधा की दादी खुदकों हमेशा इस कहानी से जोड़कर देखती रहीं। ऐसे में जब सुधा ने उन्हें ये किताब भेंट की, तो वो बहुत खुश हुईं। उन्होंने तुरंत आगे झुककर नन्हीं सुधा के पैर छुए। जिसपर सुधा ने कहा कि दादी बड़े थोड़े ही छोटो के पैर छूते हैं। तब दादी ने कहा कि मैं अपने गुरू के पैर छू रही हूं। हमारे यहां गुरू के पैर छूना उनका सम्मान करना है।