‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा’ नेताजी सुभाष चंद्र बोस का यह नारा अगर आज भी किसी की ज़ुबान से निकलता है तो, सीधा दिल को छू जाता है। सुभाष चंद्र बोस ने आज़ादी की लड़ाई में किस तरह अपना योगदान दिया, ये तो हम सभी जानते हैं। लेकिन क्या आप उस शख्स के बारे में जानते हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेलकर नेताजी बोस को नई जिंदगी दी थी।
दरअसल, ये बात है साल 1943 की, जब कर्नल निज़ामुद्दीन ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की रक्षा करते हुए 3 गोलियां खाई थीं। पूरे किस्से पर नज़र डालेंगे लेकिन उससे पहले जानते हैं कि आखिर कौन है कर्नल निज़ामुद्दीन?
कर्नल निज़ामुद्दीन उर्फ सैफुद्दीन, जिनका जन्म साल 1901 में उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जिले में स्थित धक्वान गाँव में हुआ था। वो एक सरल जीवनयापन किया करते थे। लेकिन जैसे ही उनकी उम्र 20 साल पहुंची, तो उन्होंने घर से भागकर ब्रिटिश सेना में शामिल होने का फैसला किया। कई दिनों तक ब्रिटिश सेना में काम करने के बाद एक दिन अचानक उन्होंने कुछ ब्रिटिश अधिकारियों को आपस में बात करते हुए सुना कि भारतीय सैनिकों को बचाने से ज़्यादा ज़रूरी है कि हम उन गधों को बचाएं, जिन पर लाद कर बाकी सेना के लिए राशन पहुँचाया जाता है। ब्रिटिश अधिकारी की ऐसी बातें वो बर्दाश्त नहीं कर पाए, उन्होंने इस बात को अपने साथियों की बेइज्जती की तरह लिया। जिसके चलते उन्होंने उस ब्रिटिश अधिकारी को गोली मार दी और खुद वहां से भागकर सिंगापुर पहुंच गए।
सिंगापुर पहुंचने के बाद उनकी मुलाकात नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। उन्हें नेताजी के विचार बहुत प्रभावित करने लगे, जिसके चलते वो उनकी सेना में शामिल हो गए। नेताजी की सेना में शामिल होने के बाद सैफुद्दीन ने अपना नाम बदलकर निज़ामुद्दीन रख लिया। साल 1943 से 1944 तक, उन्होंने नेताजी के साथ बर्मा के जंगलों में ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ाई लड़ी और इसी दौरान वो हादसा हुआ, जिसने निज़ामुद्दीन को सुभाष चंद्र बोस का सच्चा रक्षक बना दिया।
दरअसल, साल 1943 में एक दिन बर्मा के जंगलों में ब्रिटिश सैनिकों ने सुभाष चंद्र बोस पर छिपकर गोलियां चलाई थी। लेकिन इससे पहले की वो गोलियां नेताजी बोस के नजदीक पहुंचती, निज़ामुद्दीन की नजर बंदूक पर पड़ी, और वो कूदकर नेताजी बोस के सामने खड़े हो गए, जिसके चलते एक के बाद एक तीन गोलियां सीधा निज़ामुद्दीन के सीने में जा लगीं। तीन गोलियाँ लगने के बाद, वह बेहोश हो गए। लेकिन शुक्र रहा कि उनके शरीर में लगी गोलियाँ समय रहते बाहर निकाल ली गईं। जिसके चलते उनकी जान बाच गई।
नेताजी ने इस घटना के तुरंत बाद उन्हें ‘कर्नल’ की उपाधि दे दी और उनका नाम हमेशा के लिए कर्नल निज़ामुद्दीन पड़ गया। उन्होंने कई यात्राओं में नेताजी का साथ भी दिया और आज़ाद हिन्द फ़ौज के भंग होने तक साये की तरह हर वक्त वो उनके साथ चलते रहे। देश की आज़ादी के बाद उन्होंने ड्राइवर की नौकरी की और साल 1969 में वो अपने गाँव वापस लौट आए। बता दें कि गांव में उन्होंने अपने घर का नाम ‘हिन्द भवन’ रखा और आज भी उनके घर की छत पर तिरंगा लहराता है। जब तक वो जिंदा रहे उनकी बातों में हमेशा नेताजी का जिक्र रहा, मगर साल 2017 में देश के महान नेता के महान रक्षक रहे कर्नल निज़ामुद्दीन ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया।