बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार भोजपुरी स्टार खेसारी लाल यादव ने सियासी मैदान में एंट्री ले ली है — और दिलचस्प बात ये है कि वे आरजेडी नेता तेजस्वी यादव को एक मौका देने की अपील कर रहे हैं। ऐसा माना जा रहा है कि तेजस्वी द्वारा खेसारी को टिकट देने के पीछे भी यही रणनीति है — जैसे बीजेपी ने मैथिली ठाकुर को चुनाव मैदान में उतारा है, वैसे ही आरजेडी ने खेसारी के लोकप्रियता प्रभाव का इस्तेमाल किया है।
दरअसल, लोकप्रिय कलाकारों को टिकट देना भारतीय राजनीति की पुरानी परंपरा रही है, जिसे सभी दल समय-समय पर अपनाते आए हैं।
खेसारी लाल यादव की अपील – अब रिकॉर्ड… वोटों का बनना चाहिए
लोगों से वोट मांगते हुए खेसारी लाल यादव कहते हैं कि उनकी जीत ऐसी होनी चाहिए कि रिकॉर्ड बन जाए — बिल्कुल वैसे ही जैसे उनके कैसेट्स ने रिकॉर्ड बनाए थे। बीजेपी में शामिल कलाकारों पर जब सवाल उठता है, तो खेसारी खुद को उनसे अलग बताते हैं। वे साफ कहते हैं कि वे राजनीतिक परंपरा वाले नेता नहीं हैं और न ही सत्ता की कुर्सी की दौड़ का हिस्सा हैं। उनके मुताबिक, राजनीति उनके लिए कोई पेशा नहीं बल्कि एक जिम्मेदारी है। जैसे उन्होंने अपने गीतों के ज़रिए लोगों की आवाज़ बनकर समाज को जोड़ा, वैसे ही राजनीति में भी जनता की आवाज़ बनना चाहते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि खेसारी लाल यादव शुरू में खुद चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। वे चाहते थे कि उनकी पत्नी चंदा देवी आरजेडी के टिकट पर चुनाव लड़ें। दूसरी तरफ, पवन सिंह खुद चुनाव लड़ना चाहते थे। यानी किस्मत ने दोनों कलाकारों के रास्ते उलट दिए — जो चुनाव लड़ना नहीं चाहते थे, वे मैदान में उतर गए, और जो उतरना चाहते थे, उनकी योजना अधूरी रह गई।
काराकाट विधानसभा सीट से पवन सिंह की पत्नी ज्योति सिंह निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में हैं। यही इलाका है जहां से पवन सिंह ने 2024 में लोकसभा चुनाव लड़ा था, और ज्योति सिंह ने उनके लिए प्रचार किया था। ज्योति का कहना था कि वे तभी चुनाव नहीं लड़ेंगी जब पवन सिंह उन्हें “स्वीकार” कर लेंगे — यानी मामला सिर्फ राजनीति का नहीं, व्यक्तिगत भी था।
उधर, खेसारी लाल यादव अपनी पत्नी को टिकट दिलाना चाहते थे। उन्होंने खुद कहा था — “मैं चाहता हूं कि मेरी पत्नी चुनाव लड़ें… चार दिन से मना रहा हूं… अगर वो मान गईं तो नामांकन करेंगी, वरना मैं सिर्फ प्रचार करूंगा और तेजस्वी भइया को जिताने की कोशिश करूंगा। आखिरकार चंदा देवी मान भी गईं और टिकट भी मिल गया, लेकिन जब पता चला कि वोटर लिस्ट में उनका नाम ही नहीं है, तो स्थिति बदल गई। मजबूरन, खुद खेसारी लाल यादव को छपरा सीट से मैदान में उतरना पड़ा। अब वे आरजेडी के उम्मीदवार हैं, जबकि पवन सिंह बीजेपी के लिए प्रचार करेंगे।
खेसारी का चुनाव प्रचार – भावनाओं और जिम्मेदारी का मिश्रण
सोशल मीडिया पर खेसारी लाल यादव ने खुद को जनता से जोड़ते हुए लिखा — मैं छपरा का बेटा हूं, खेत-खलिहान का लाल हूं, हर तबके की आवाज हूं और युवाओं का जोश हूं। वे स्पष्ट करते हैं कि राजनीति उनके लिए सत्ता या कुर्सी नहीं, बल्कि एक “जिम्मेदारी” है — छपरा के हर घर तक विकास पहुँचाने की जिम्मेदारी। इसी छपरा की धरती पर मेरा पहला कैसेट फेंक दिया गया था… लेकिन आज पूरा छपरा मेरे लिए खड़ा है… मैं तो बस एक कलाकार बनना चाहता था, लोगों का बेटा बनकर रहना चाहता था… और आज लगता है मैं पूरे बिहार का बेटा हूं। हर बार गाना के रिकॉर्ड बनेला, एह बार वोट के रिकॉर्ड बना दीं… खेसारी के वादा बा, छपरा विधानसभा भारत के आदर्श विधानसभा में से एक होई!
छपरा सीट एनडीए गठबंधन में हमेशा बीजेपी के पास रही है। 2005 में जेडीयू ने इसे आरजेडी से छीना था, फिर 2010 में यह सीट बीजेपी के हिस्से में आ गई। 2014 के उपचुनाव में आरजेडी ने दोबारा जीत हासिल की, लेकिन 2020 में बीजेपी फिर लौट आई। इस बार बीजेपी ने मौजूदा विधायक सीएन गुप्ता की जगह छोटी कुमारी को टिकट दिया है। तेजस्वी यादव का दांव भी बीजेपी के मुकाबले ही है — जैसे बीजेपी ने अलीनगर सीट से मैथिली ठाकुर को उतारा, वैसे ही तेजस्वी ने छपरा से खेसारी लाल यादव को मैदान में उतारकर भोजपुरी दर्शकों की भावनाओं को साधने की कोशिश की है। गौरतलब है कि अलीनगर सीट कभी आरजेडी के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी के पास हुआ करती थी।
विपक्षी पार्टियों द्वारा जब “जंगलराज” का मुद्दा उठाया जाता है, तो खेसारी लाल यादव खुलकर कहते हैं — लोग कहते हैं जंगलराज था… मान लेते हैं थोड़ी देर के लिए था… लेकिन 15 साल आपके पास भी तो थे, आपने क्या स्वर्ग बना दिया? आपने भी तो कुछ नहीं किया। स्पष्ट है कि खेसारी लाल यादव तेजस्वी यादव के लिए सिर्फ उम्मीदवार नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और भावनात्मक चेहरा भी हैं — जो बीजेपी के मनोज तिवारी, रवि किशन, निरहुआ और पवन सिंह जैसे स्टार नेताओं के प्रभाव को संतुलित करने के लिए मैदान में उतारे गए हैं।
इस तरह, खेसारी लाल यादव का चुनावी सफर न सिर्फ एक कलाकार से नेता बनने की कहानी है, बल्कि उस कलाकार के जिम्मेदार नागरिक बनने की यात्रा भी — जो अब अपने “गीतों की जगह जनता की आवाज़” बनना चाहता है।


