लंदन के ट्रैफलगर स्कवायर पर शनिवार 27 जुलाई को 50 हजार से ज्यादा लोग जमा थे, ऐसी भीड़ पिछले कुछ सालों में लंदन में कभी किसी रैली में नहीं देखी गई। इसमें जमा लोगों ने लंदन हाई कोर्ट ‘रॉयल कोर्ट ऑफ जस्टिस’ से ट्रैफलगर स्क्वायर तक शांतिपूर्ण मार्च किया, इस रैली का आयोजन करने वाले ब्रिटिश खोजी पत्रकार और लेखक टॉमी रॉबिनसन ने इसे शांतिपूर्ण, देशभक्तिपूर्ण प्रतिरोध का नाम दिया था।
पिछले कई दिनों से टॉमी सोशल मीडिया के जरिए इस आयोजन को सफल बनाने में जुटे थे और इसकी गंभीरता को देखते हुए लंदन की मेट्रोपोलिटन पुलिस ने तकरीबन दो हजार पुलिसकर्मी तैनात किए थे। इस मार्च में शामिल लोग “Rule Britannia” और “We want our country back” जैसे नारे लगा रहे थे। आखिर इस मार्च की आवश्यकता क्यूं पड़ी? ब्रितानियों से उनका देश कौन छीन रहा है और इसके आयोजक टॉमी रॉबिन्सन ने अपने भाषण में क्यूं कहा, “हम अब और चुप नहीं रहेंगे।”
दरअसल इस मार्च ने ब्रिटेन के नागरिकों के बीच बढ़ती चिंता और असुरक्षा को उजागर किया है। साथ ही इस असुरक्षा के लिए जिम्मेदार राजनेताओं के साथ साथ यहां की मीडिया के दोहरे चरित्र को एक बार फिर सामने ला दिया है। सही मायनों में देखे तो इस रैली का आयोजन ब्रिटेन में पिछले एक-डेढ़ देशक से लगातार बढ़ रहे इस्लामिक चरमपंथ के खिलाफ था और जिस तरीके से इस आयोजन में ब्रिटेन के मूल निवासियों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया उसने निश्चित ही नई नवेली लेबर सरकार पर इस समस्या के समाधान का दबाव तो बना ही दिया है। जाहिर है प्रधानमंत्री केर स्टामर चिंतित होंगे। इस रैली में शामिल होने के लिए ब्रिटेन के चारों राज्यों इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्श और नॉर्दन आरयलैंड से लोग जमा हुए थे और इन सबकी जबान पर लगातार बढ़ रही हिंसा की गतिविधियों का जिक्र था।
इतना ही नहीं इस रैली में शामिल होने खासतौर पर अमेरिका से आए एक ब्रिटिश युवा ने कहा कि हमने दुनिया को आज दिखा दिया है कि हमारी सड़कों पर सिर्फ फिलिस्तीन के पक्ष में नारे लगाने वाले ही नहीं घूमते बल्कि अपने देश को अतिवाद से बचाने वाले भी सड़क पर उतर सकते हैं। हमसे बात करते हुए एक बिजनेसमैन ऑल्टर ने कहा कि अगर हमारी पीढ़ी अपने देश को इन चरमपंथियों से बचाने के लिए एकजुट होकर सड़क पर नहीं उतरा करेगी तो अगली पीढ़ी सड़क पर चलने से घबराएगी। निश्चित ही उनकी ऐसी बातों में भविष्य के लिए उनका डर भी दिख रहा था।
ब्रिटेन में इस्लामी चरमपंथ और तेजी से बढ़ता हुआ जिहाद का खतरा अब एक गंभीर मुद्दा बन गया है। एक तरफ समाज में ध्रुवीकरण का माहौल बन रहा है वहीं इसका असर राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी पड़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में, ब्रिटेन में इस्लामी चरमपंथी हमलों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। मैनचेस्टर एरिना, वेस्टमिंस्टर, और लंदन ब्रिज हमलों ने तो यह स्पष्ट कर दिया है कि चरमपंथी किसी भी समय और कहीं भी हमला कर सकते हैं और किसी की भी जान ले सकते हैं। इन हमलों ने न केवल कई निर्दोष लोगों की जान ली है बल्कि समाज में व्यापक भय और असुरक्षा का माहौल भी पैदा किया है।
2017 के लंदन ब्रिज हमले और मैनचेस्टर एरिना में हुए बम धमाकों ने साबित कर दिया था कि चरमपंथी गतिविधियों का खतरा कितना वास्तविक है। लेकिन पिछले साल लीस्टर औऱ इस महीने लीड्स में हुए हमलों ने ब्रिटेन के मूल निवासियों के मन का डर बढ़ा दिया है, बेपरवाह और बेखौफ रहने वाला ये जेंटलमैन समुदाय खासा चिंतित है। इसमें मीडिया और सोशल मीडिया का रोल भी काफी मायने रखता है जैसे पिछले सप्ताह मैनचेस्टर एयरपोर्ट पर दो मुलिस्म युवकों की पिटाई करते हुए पुलिसवालों का वीडियो जारी हुआ औऱ उसमें से एक पुलिसकर्मी निलंबित कर दिया गया, अगले ही दिन ब्रिटिश मुफ्तियों के बयान आऩे लगे और मैनेचस्टर के साथ साथ लंदन-बर्मिघम समेत कई जगहों पर उन मुस्लिम युवकों के समर्थन में प्रदर्शन भी होने लगे। लेकिन जब पूरा वीडियो सामने आया तो स्पष्ट दिखा कि दोनों युवकों ने पहले पुलिसवालों को पीटा, महिला पुलिसकर्मी की नाक तोड़ी जिसके बाद पुलिसकर्मियों ने जवाबी कार्रवाई की।
जाहिर है कि पूरा वीडियो सामने आऩे के बाद उन युवकों का समर्थन करने वाले संगठन माफी तो नहीं मांगेंगे। स्पष्ट है कि ब्रिटेन में दुनियाभर के अविकसित और विकासशील देशों से लोग बेहतर जीवन शैली के बसने आते हैं। यहां अलग अलग इलाकों में अलग अलग समुदाय के प्रवासियों का समूह है जहां वो अपने मूल रीति-रिवाजों के साथ रहते हैं लेकिन ऐसा क्या है कि जिन इलाकों में मुस्लिम निवासी या शरणार्थी ज्यादा हैं उन इलाकों से ही ऐसी घटनाएँ ज्यादा सामने आती हैँ। बजाय इसके कि वो ब्रिटेन की मुख्यधारा में शामिल हो जाएँ वो अपनी विचारधारा ब्रिटेन पर पुरजोर थोप रहे हैं और अपने उन्हीं तौर तरीकों के साथ यहां भी जीने की आजादी चाहते हैं चूंकि यहां किसी भी तरह के विरोघ प्रदर्शन की आजादी है, मानवाधिकार कानून उम्दा और कारगर है लिहाजा जब चाहा फिलिस्तीन का झंडा उठा लिया या जब चाहा भारत का झंडा उतार दिया।
ये भी साफ साफ दिखता है कि इस्लामी चरमपंथी संगठनों का प्रचार तंत्र बेहद प्रभावी और व्यापक है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से, वे युवाओं को आकर्षित करने और उन्हें कट्टरपंथी बनाने में सक्षम हैं। ब्रिटेन के कई युवा, जो सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, इन चरमपंथी विचारधाराओं की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा तो है ही साथ ही समाज की स्थिरता और भविष्य पर भी गंभीर असर पड़ रहा है। ब्रिटिश गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में, सैकड़ों ब्रिटिश नागरिकों ने सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट (आईएस) के साथ लड़ने के लिए यात्रा की है।
यह ट्रेंड चिंताजनक है क्योंकि ये युवा ब्रिटेन वापस लौटने पर चरमपंथी विचारधाराओं का ही प्रचार करेंगे और इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करने से मानवाधिकारी संस्थाएं रोकेंगी। हो ये रहा है कि इस्लामी चरमपंथी गतिविधियों के बढ़ते प्रभाव से समाज में ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। लीस्टर जैसी घटनाओं में, हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच संघर्ष ने यह दिखाया है कि ब्रिटेन में धार्मिक और सांस्कृतिक विभाजन और गहरा हुआ है।
टॉमी रॉबिन्सन, ब्रिटेन में भले ही एक विवादास्पद व्यक्ति हैं लेकिन वो काफी प्रभावशाली हैं और तथ्यों के साथ अपनी बात रखते हैं। काफी लंबे समय से इस्लामी चरमपंथ के खतरे के खिलाफ मुखर रूप से बोलते रहे हैं और अगर गौर से देखा जाए तो इस मुखरता का खामियाजा भी उनको भुगतना पड़ा है, दो साल तक सलाखों के पीछे जिंदगी बितानी पड़ी है। चिंता की बात ये भी है कि इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ आवाज उठाने वाले दुनिया भर में एक झटके में उनके निशाने पर आ जाते हैं तभी तो रॉबिनसन को उनके ही देश में जेल ही हवा खानी पड़ी।
रॉबिन्सन के अनुसार, ब्रिटेन को अपनी संस्कृति और सुरक्षा की रक्षा के लिए कठोर कदम उठाने होंगे। उन्होंने कहा कि इस्लामी चरमपंथ के खिलाफ संघर्ष को केवल सरकार पर नहीं छोड़ा जा सकता, बल्कि नागरिकों को भी इस संघर्ष में सक्रिय भूमिका निभानी होगी। साथ ही सरकार को सुरक्षा उपायों को और भी सख्त करना होगा। आतंकवाद विरोधी कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करना और सुरक्षा बलों की क्षमता को बढ़ाना आवश्यक है। ब्रिटेन की सुरक्षा एजेंसियों को अपने निगरानी तंत्र को और मजबूत करना होगा। चरमपंथी संगठनों की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी और समय रहते प्रभावी कदम उठाने होंगे। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी आवश्यक है ताकि चरमपंथी नेटवर्क को तोड़ा जा सके।
राजनीतिक तौर पर देखें तो ब्रिटेन में इस्लामी चरमपंथी ताकतों के बढ़ते प्रभाव के लिए किसी विशेष राजनेता को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराना थोड़ा मुश्किल है। हालांकि, कुछ राजनेताओं की नीतियां और कार्य इस समस्या को बढ़ाने या कम करने में भूमिका निभा सकती हैं। यह समस्या कई जटिल कारकों का परिणाम है, जिनमें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय नीतियां, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां, और समुदायों के बीच के संबंध शामिल हैं।
Note : यह लेख लंदन से अनुरंजन झा द्वारा लिखा गया है, (लेखक पत्रकार औऱ ब्रिटिश संस्था गांधियन पीस सोसायटी के चेयरमैन हैं)