आपने अब तक कई क्रांतिकारियों की कहानियां पढ़ी होंगी। जिन्होंने बेहद कम उम्र में देश के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी। जिनमें खुदीराम बोस, बाजी राउत समेत कई युवा क्रांतिकारियों के नाम शामिल हैं। लेकिन कुंवर सिंह एक ऐसा नाम है जिन्होंने अपना बुढ़ापा तक देश के नाम कर दिया। जी हां वीर कुंवर सिंह, जिनका जन्म साल 1977 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। बिहार के इस सूरमा की वीरता की कहानी से कम ही लोग वाकिफ हैं। ऐसा कहा जाता है कि वीर कुंवर भारत के दूसरे ऐसे महान योद्धा थे जिन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद गोरिल्ला युद्ध नीति की जानकारी थी। उन्होंने अपनी इस नीति से एक या दो नहीं बल्कि कई बार अंग्रेजों को मात दी है।
बात है 1857 की, जब पहली बार भारत में स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजाया गया। तब 80 वर्षीय वीर कुंवर अपनी उम्र को परे छोड़ते हुए मैदान में कूद पड़े। उन्होंने कुछ सैनिकों और अपने कुछ साथियों को जोड़ते हुए सबसे पहले आरा नगर से अंग्रेजों का सफाया किया। लेकिन इस हार के बाद अंग्रेजी सेना शांत नहीं बैठने वाली थी। जिसके चलते कुछ ही दिनों बाद दोगुनी सेना के साथ अंग्रेजों ने वीर कुंवर पर हमला बोल दिया। इस बार हुई लड़ाई में वीर कुंवर को अपना घर तक छोड़ना पड़ा। हालांकि उन्होंने हार नहीं मानी, वो मैदान में डटे रहे और अगली पारी खेलते हुए कुंवर ने इस आंदोलन को और मजबूत करने का फैसला किया। उन्होंने अयोध्या, लखनऊ, फैजाबाद, रीवा, मिर्जापुर, बनारस, सिकंदरपुर और बलिया समेत कई जगहों का दौरा कर नए साथियों और स्वतंत्रता सेनानियों को एकत्रित किया।
उनके विचारों और प्रोत्साहन से लोगों के दिलों में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग भड़कने लगी। भोजपुर में भी अंग्रेजों को वीर कुंवर ने मुंह तोड़ जवाब दिया। इसके बाद कानपुर में वो तात्या टोपे और नाना साहेब के साथ हो लिए। उन्होंने आजमगढ़ को भी अंग्रेजों से छुटकारा दिलाया। लेकिन हर बार हारने के बाद भी अंग्रेजी हुकूमत बार-बार अपनी दोगुनी ताकत के बलबूते पर वापस कब्जा जाम लेती थी। ऐसे में अब वीर कुंवर अंग्रेजी सेना की आंखों में खटकने लगे थे। सिर्फ उनको हराने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने कई आम नागरिकों को पैसों का लालच देकर अपने साथ तक मिला लिया।
कहा जाता है कि आजमगढ़ युद्ध के बाद अप्रैल 1858 में नदी मार्ग से ही वीर कुंवर कुछ और साथियों के साथ जगदीशपुर के लिए रवाना हुए। इस बीच एक देशद्रोही ने उनकी खबर अंग्रेजों तक पहुंचा दी। ब्रिटिश सेना ने इसे अपने लिए अवसर माना और देर रात नदी में ही गोलियां बरसाई। इस बीच एक गोली वीर कुंवर के दाहिने हाथ पर जा लगी। बावजूद इसके वो अपनी तलवार चलाते रहे। कुछ देर बाद जब उन्हें ये एहसास हुआ कि गोली का जहर पूरे शरीर में फैलने लगा है। तो बिना किसी परवाह के उन्होंने अपना हाथ तलवार से काटकर नदी में फेंक दिया। वो लड़ते रहे और जैसे तैसे जगदीशपुर पहुंचे। हालांकि तब तक गोली का जहर उनके पूरे शरीर में फैल चुका था। उनकी हालत खराब थी। इलाज के दौरान उनसे युद्ध से दूर रहने का आग्रह भी किया गया। लेकिन एक योद्धा अपनी अंतिम सांस तक केवल लड़ना जानता है।
वीर कुंवर ने ठान लिया था कि वो जगदीशपुर को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद कराकर ही दम लेंगे। तो बस इस बार उन्होंने अपने जीवन की आखिरी जंग में कूदने का फैसला लिया। आखिरकार उनकी वीरता के आगे ब्रिटिश सेना को झुकना पड़ा, जगदीशपुर पर वीर कुंवर ने विजय तो हासिल की मगर इसके ठीक तीन दिन बाद 26 अप्रैल 1858 को वीर कुंवर वीरगति को प्राप्त हो गए।