भारत की आबादी आज लगभग 140 करोड़ है और भारत के राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठी एक आदिवासी महिला है। ये बात अपने आप में ये साबित करने को काफी है कि देश की महिलायें आज हर बेड़ी, हर बंधन से मुक्त होकर हर वो मुकाम हासिल कर रही हैं जिनकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।
जो काम आज महिलाओं के लिए बड़े ही आम हैं। एक वक्त पर उनके अधिकार के लिए किसी ना किसी ने संघर्ष जरूर किया है । ऐसा ही एक लंबा संघर्ष 1848 में देश की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले ने भी किया था ।
3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सातारा जिले के नायगांव में जन्मीं सावित्रीबाई फुले का जीवन 9 साल की उम्र तक बाकी लड़कियों की तरह ही रहा। वो उस दौर में जन्मीं थी जब लड़कियों को पढ़ाना, स्कूल भेजना व्यर्थ माना जाता था। उस वक्त बहुत कम उम्र में ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। लेकिन सावित्रीबाई के जीवन में बड़ा बदलाव उनके विवाह के बाद ही आया। जब साल 1940 में सिर्फ 9 साल की उम्र में उनकी शादी महात्मा ज्योतिराव फूले से हो गई। ज्योतिराव फूले भी तब केवल तीसरी कक्षा में थे। लेकिन जब सावित्रीबाई ने उनसे आगे पढ़ाई करने की इच्छा जताई तो उन्होंने ना केवल अनुमति दी बल्कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए हर जरूरी सहायता भी उपलब्ध कराई। हालांकि उनकी जिंदगी में असल मुसीबतें इसके बाद शुरू हुईं, जब वो पढ़ने के लिए घर से बाहर निकलती तो लोग उनपर पत्थर फेंकने लगते, कूड़ा-कीचड़ या जो भी उनके हाथ आता वो सावित्रीबाई के ऊपर फेंककर अपना विरोध जताते थे। मगर सावित्रीबाई के इरादे लोगों के विरोध से ज्यादा मजबूत थे। उन्होंने कभी भी किसी के दबाव में आकर अपने सपनों का गला नहीं घुटने दिया। धीरे-धीरे सारी मुश्किलों को पार कर ना केवल उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की, बल्कि अपने जैसी तमाम लड़कियों को शिक्षा की राह पर चलने के लिए मार्गदर्शन भी दिया ।
समय के साथ-साथ आगे बढ़ते हुए सावित्रीबाई ने खुद अपने पति के सहयोग से 1948 में महाराष्ट्र के पुणे जिले में भारत का पहला बालिका स्कूल स्थापित किया. और वो स्वंय इस स्कूल की प्रधानाचार्या बनीं. यही कारण भी रहा कि उन्हें भारत की पहली महिला शिक्षिका होने का दर्जा दिया गया. महिलाओं के मन में शिक्षा की अलख जगाने वाली सावित्रीबाई फूले के नेक कामों का सिलसिला बस यहीं नहीं थमा, बल्कि उन्होंने देश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ भी आवाज़ उठाई. उन्होंने कई आंदोलनों में हिस्सा लिया, सतीप्रथा का विरोध किया. नारी मुक्ति आंदोलन की प्रणेता बनकर उन्होंने समाज में फैली छुआछूत की मानसिकता को भी मिटाने के लिए काफी संघर्ष किया. अगर देखा जाए तो सावित्रीबाई फुले आज की नारी के लिए सिर्फ एक मिसाल नहीं बल्कि प्रेरणा भी हैं.